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कविता

दुर्घटनाएँ जीते

राजेंद्र गौतम


रेत के बने पुल तो बह ही जाने थे
रोज-रोज हम दुर्घटनाएँ जीते।

उस पर ही बढ़ आया यह
नारों का रथ
दलदली घाटियों तक
जाता था जो पथ
हार चुके अब तो हम कीचड़ उलीचते
इस यात्रा में आगे जाने क्या बीते।

यह जो दालानों तक
बीहड़ उग आया
किससे पूछें
इसको किसने सरसाया
गलियों तक आहट कब जिंदा जा पाती
खिड़की के खुलते ही गुर्राते चीते।

जिस समय-सारथी को
अपना सब सौंपा
उसने ही अब हम पर
निर्वासन थोपा
मानसरोवर में ही हो जब जहर घुला
कैसे तब अंजुली भर गंगाजल पीते।
 


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